Wednesday, 21 November 2018


अलहदा सा राहो में मैं चलता रहा अपना गम छुपाए
कसक कई दिल में थी लेकिन रह गया बिन किसी को बताएं
पतझड़ से आंसू बहते न चैन दिन न रात
दावानल सी ज्वाला करती कतरा कतरा मुझको राख़
एक आरज़ू लेके निकला जियुंगा हरदम मनमर्जी से
जग ने हरपल यही सिखाया मिलता नहीं कुछ बिन अर्जी के
सोचा के मुसाफिर हूं मैं भी जिंदगी की गाड़ी में
कितना ही करतब दिखला दू फिर भी दिखु अनाड़ी मैं
कोई कहता साम बुरा है कोई कहता दाम बुरा है
लेकिन इन दोनों के बिन कहा जीवन का काम पूरा है
यहां देखू के वहां देखू मैं सबकी अपनी मस्ती हैं
लगता है रोज जिंदगी मुझपे ठहाके मार के हस्ती है
एक ओर कोशिश की मैने सफलता के परिणाम की
सजा फिर से मिली मुझे कोशिश के दुष्परिणाम की
- आनंद सगवालिया

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